आज जैसे समुद्र सा बह रहा आसमान
लहरों से कुछ उफ़न रहे हैं बादल
घुस गये हैं परिंदे भी खोखली दरारों में
इस सब ड्रामे के बीच कहीं एक गनेल गुलाटी मारता हुआ...
जैसे कहता हो की मौज उड़ा आज...टीन की छत पे जब टप टप की आवाज़ आती है...
कहीं एक चाय
का प्याला धुएँ
मे खिलता है
क्या कोई जाने
मेरा दिल भी
आज मचल रहा
है...
उड़ने का इन
बादलों सा, चिल्लाके
खूब गरजने का
मुड़ जाऊँगा मोड़ से
अपने महबूब के
घिर जाऊँगा खिड़की
पे उसके..
जो ना आई
वो बाहर
तो टूट जाएँगे
शीशे फिर...
मिलेगी जब नज़र
बरस पड़ूँगा मैं
उसके चेहरे से छलकती हँसी बनके...
और दे जाऊँगा
याद उस बात
की
उन सिलवटों सी रात की
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