Wednesday, August 21, 2013

सिलवटों सी रात




















आज जैसे समुद्र सा बह रहा आसमान
लहरों से कुछ उफ़न रहे हैं बादल
घुस गये हैं परिंदे भी खोखली दरारों में
इस सब ड्रामे के बीच कहीं एक गनेल गुलाटी मारता हुआ...
जैसे कहता हो की मौज उड़ा आज...

टीन की छत पे जब टप टप की आवाज़ आती है...
कहीं एक चाय का प्याला धुएँ मे खिलता है
क्या कोई जाने मेरा दिल भी आज मचल रहा है...

उड़ने का इन बादलों सा, चिल्लाके खूब गरजने का
मुड़ जाऊँगा मोड़ से अपने महबूब के
घिर जाऊँगा खिड़की पे उसके..

जो ना आई वो बाहर
तो टूट जाएँगे शीशे फिर...
मिलेगी जब नज़र
बरस पड़ूँगा मैं
उसके चेहरे  से छलकती हँसी बनके...
और दे जाऊँगा
याद उस बात की
उन सिलवटों सी रात की

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