क्यूँ ढूंडता है सच के निशान?
कहाँ पाएगा अपनी तू मंज़िल?
कब होगी ऊँची तेरी ये मचान?
अरे तेरे पैरों के पास
देख पड़ा मुड़ा नोट
इसे देखकर दुनिया दिखती
इक समतल मैदान
खड़े बुतो के देख तमाशे
मुर्दाघर भी लगे ठहाके
नेताओं की पतलून खिसककर
जब बन जाए सलवार
रिमझिम पैसों की बारिश में
भीग रहे ईमान कई
भ्रष्टाचार मलाई खाए
सज्जन को वनवास कहीं
बस कुछ नोट उड़ाव साहब
कर लो फिर चाहे
ताजमहल की सौदेबाज़ी
आजकल है सब खुला व्यापार
यहाँ बिकता है सभी
कहें तो रूह भी दे दूं
क्या मोल लगाओगे बाबूजी?
किसी शहर से जो तुम गुज़रो
उस रिक्शेवले को देखो
कहीं जल चुकी तमन्नाओं की राख जो देखो
तो पूछो खुद से कि आदमी जलता क्यूँ है
उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है 3G से?
आज जो बापू ज़िंदा होते
डर जाते देखकर इस पैसे की लड़ाई
कहते मैं तो पहचान हूँ आज़ाद परिंदों की
फिर नोट पर मेरी फोटो क्यूँ लगाई?
Bahut hi bhaavpurn kavita.....
ReplyDeletethank you seema ji
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