Saturday, March 31, 2012

दर्याफ़्त





सभी परिंदे उड़ा के बैठा
खुद के अपने अंदर के
कि अब देखूं
ये दुनिया है क्या?
दबी ज़िंदा उलझनें
कई जवां सालों की
सोचा यूही लड़ते लड़ते
ख़त्म हो जाएँगी
सोचा तो बहुत पर कुछ समझ ना आया

फिर सोचा घूमूं
उन टहनियों पे
बिताई थी जहाँ
रातें कई
ढूंढूं उन ठिकानों को
जहाँ किया खुद को
बर्बाद कभी
घूमा तो बहुत पर कुछ समझ ना आया

फिर जागा तो पाया
कई मुसाफिरों को
जो बन गए थे दोस्त
सफ़र मे कहीं
कुछ पन्ने उलटने में
लगी फिर देर मुझे
ज़माने भर की खुशी तो मिली
और कुछ गमगीं हुआ मैं
आख़िर जाना था आगे
दूर जहाँ अब अकेले
मैं अब भी कुछ समझ ना पाया

तुझे समझने वाले मियाँ
बैठे हैं सड़कों में कई
जिन्हें ये दुनिया
पागल कहती है

कभी मैं तुझे सोचूँ
तू क्या है ए ज़िंदगी
लगे तू चिलम सी है
जो जल रही है ज़िंदा
जैसे साँस भी लेती हो
ख़त्म होने को

फिर समझ में आया
बीत जाए जो 
वो मक़ाम है ज़िंदगी
अगर ये हवा है
जी लो जितना जी सकते हो
और गर लगे ज़हर सी
पीलो जितना पी सकते हो


 

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