हारने का क्या मतलब है? कई लोगों की नज़रों में ये एक कड़वा सच है, जिसे मानना उतना ही मुश्किल है जितना ये ज़रूरी। कुछ के लिए ये ज़िंदगी जीने का मकसद है, ज़िंदगी और मौत के बीच का फासला। कइयों के ज़हन में बसा ये एक साँप है, जिसका ज़हर उनकी नसों में बहता डर है। मुझे भी डर लगता है, कई तरह के व्यक्तित्वों से, कई तरह के सरीसृपों से, पर नही लगता तो मुझे हारने से।
अभी कल ही मैने अपने ऑफीस की दहलीज़ पर कदम रखा ही था, क़ि मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं और धरती मानो पाताल में ख़ासक गयी। कुल चार लोगों में से दो ही आए और उनमे से भी एक की तबीयत ख़राब। सारी टेबल पर फाइलों का ढेर जैसे कबूतरखाना हो और वो फोन की घंटियाँ जैसे कान के पर्दे फाड़ती सी। फाइलों का बोझ जैसे ही थोड़ा कम हुआ वैसे ही मॅनेजर बाबू ने अपने कक्ष में बुलाया और वो बातें सुनाई कि बस एक तरफ तो मेरे कानों के दोनों सिरों से पिघला लोहा निकल रहा था, तो दूसरी तरफ मेरे हाथ मुक्का रूपी दानव बन चुके थे, जिनका काम अब बस किसी के सिर के टुकड़े - टुकड़े कर देना था। आँखें लावा उगल रहीं थी तो दिल में सैलाब सा बन रहा था। उस क्षण से बाहर आने को मैने अपने ऑफीस का दरवाज़ा खोला और लगाई एक सिगरेट होठों से, फिर तो मैं बस कश खींचता रह गया और ये सोचता रहा कि या तो ये धुआँ भी मुझे अपने साथ उड़ा ले जाए या मैं ही धुआँ बन जाऊं और इधर उधर मंडराता फिरू। दिन भर भी कोई आराम ना रहा, कभी किसी का मिसकॉल तो कभी मशीन का अड़ियलपन, कभी खाने में कंकर तो कभी बॉस की ज़िल्लत।
जैसे तैसे शाम आते आते मैने अपना सारा सामान बटोरा और सोचा की अब शाम ही रंगीन बनाई जाए। जब सब ठीक से चल रहा हो तो कैसे बर्बादी का आलम लाएँ - ये मुझसे अच्छा कौन बता सकता है। आपको कुछ भी नही है करना, बस महिला मित्र को कॉल करें और आपकी बची खुची खुशियों का भी कबाडा। मैने भी कुछ ऐसा ही किया और अपने पावं पे कुल्हाड़ी दे मारी। महिला मित्रों के नखरों का क्या कहना, जब आप की सबसे ज़्यादा हालत खराब हो तभी उन्हें नखरप्रदर्शन में ज़्यादा आनंद आता है। खैर उनसे मिलने आधे रास्ते जाने के बाद पता चला कि वो तो पहले ही निकल गयीं अपने मित्रगणो के साथ। एक तो मैं पहले ही आगबबूला था और अब तो मेरा तन जलने लगा। उपर से आता पसीना आग में घी का काम कर रहा था। मैं बस मेट्रो से उतरा और चलता चला गया। एक समय तक इतना गुस्सा आया कि कान गरम हो गए। मैने उन्हें बहुत कुछ फ़ोन पे कहा, ना माना तो एक के बाद एक मसेजों की लड़ी भेज डाली, फिर कुछ समय तक हांफता चला गया।
कुछ पल के लिए दूध का जला सा भी महसूस हुआ, फिर मैं उन अनगिनत सोचो की जमहाइयाँ लेता चला गया, कभी कुछ कभी कुछ और। इतना सोच लिया की दिमाग़ का भी पेट भर गया। फिर सोचा की मुझे किसी की भी ज़रूरत नही, सभी धोखेबाज़ हैं। उसके बाद मैं मरा सा पड़ गया, शरीर मानो बर्फ सा ठंडा। अब वो मेरी सोच के तले जम गया या मेट्रो के ठंडे एसी की हवा ख़ाके इतराने लगा, मुझे नहीं पता। देखते ही देखते मैं खुद को हारा सा मानने लगा। ऐसा लगा जैसे अब किसी भी तरीके से कुछ ठीक नही हो सकता, लगा की जैसे अब उस शैतान का माथा चूम लूं, जिसने आज मुझे इतने दुख दिए। फिर आँखों से काला धुआँ छँटने लगा और मुझे ये हार भी खूबसूरत सी लगने लगी। मैं आज़ाद था नयी ग़लतियों के लिए। मैने ये सोच लिया की इससे ज़्यादा कुछ बुरा नही हो सकता और अगर होता भी तो मैं तैयार हूँ। तैयार हूँ मैं अब जीतने को, नई खुशियाँ बटोरने को, नये मकसद तलाश करने को और उससे भी ज़्यादा अपनी ग़लतियों से सीखने को।
kya baat hai dada lage rahooooooooo
ReplyDeletethanks baba. abhi dekha
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